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क्या भारत की भाषाई विविधता खतरे में है?

bhashvivad
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भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिशों के खिलाफ दक्षिण भारत में विरोध तेज़ हो गया है। जानिए भाषा विवाद का इतिहास, वर्तमान स्थिति और इसका सामाजिक असर।

1. आज़ादी से पहले: विविधता की नींव

  • भारत सदियों से भाषाई विविधता का गढ़ रहा है।
  • ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ी शासन-प्रशासन और शिक्षा की प्रमुख भाषा बन गई।
  • क्षेत्रीय भाषाएं जैसे बंगाली, तमिल, मराठी, उर्दू आदि अपने-अपने क्षेत्रों में प्रमुख बनी रहीं।

2. संविधान निर्माण (1946–1950): भाषा को लेकर पहली बहस

  • संविधान सभा में भाषा को लेकर जबरदस्त बहस हुई — क्या हिंदी को राजभाषा बनाया जाए या अंग्रेज़ी को जारी रखा जाए?
  • दक्षिण भारत के प्रतिनिधि हिंदी थोपे जाने के विरोध में थे।
  • अंततः समझौता हुआ:
    👉 हिंदी को राजभाषा बनाया गया और
    👉 अंग्रेज़ी को सह-राजभाषा के रूप में 15 वर्षों (1950–1965) तक मान्यता दी गई।

3. 1965 का हिंदी-विरोध आंदोलन (Anti-Hindi Agitation)

  • जैसे ही 15 वर्षों की समयसीमा (1950–1965) खत्म होने को आई, यह डर पैदा हुआ कि अंग्रेज़ी को पूरी तरह हटाकर हिंदी अनिवार्य की जाएगी।
  • तमिलनाडु में जोरदार विरोध हुआ, छात्र सड़कों पर उतर आए।
  • कई जगह हिंसक घटनाएँ हुईं और लोगों की जानें भी गईं।
  • सरकार को पीछे हटना पड़ा और अंग्रेज़ी को सह-राजभाषा बनाए रखने का निर्णय लिया गया।

4. राज्य पुनर्गठन (1956): भाषाई आधार पर सीमाओं का निर्धारण

  • “राज्य पुनर्गठन आयोग” ने भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया।
  • उदाहरण:
  • आंध्र प्रदेश (तेलुगु भाषा के लिए)
  • महाराष्ट्र और गुजरात (मराठी और गुजराती के लिए)
  • पंजाब (पंजाबी भाषी बहुलता के आधार पर)
  • इसने भाषाई अस्मिता को और मजबूत किया, जिससे क्षेत्रीयता बढ़ी।

“निष्कर्ष (संक्षेप में)” :– भारत की हर भाषा उसकी आत्मा की एक आवाज़ है।
जब हम किसी एक भाषा को ऊँचा और बाकी को नीचा मानते हैं, तो देश की एकता कमजोर होती है।भाषाएँ बाँटने के लिए नहीं, जोड़ने के लिए होती हैं।सम्मान और समानता ही इस विवाद का सबसे सुंदर समाधान है।

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